Saturday, July 24, 2010

****तालाश क****

मुसाफिर बहुत उड़ लिया चाहतो के आसमान मे,
अब जीने के लिए ज़मी की तालाश कर...........

क्यों परदेश जा रहा है तू,
बड़े ही कीमती पल गवा रहा है तू,
सब कुछ ही इस सरजमी पर है,
न कही और कुछ तालाश कर...........

बिना मेहनत के यहाँ बुराई भी
हासिल नहीं होती,
मंजिले कभी बुजदिलों के काबिल नहीं होती,
सागर की लहरे कभी साहिल नहीं होती,
मत होंसला तू हार अपनी मंजिल की तालाश कर..........

अगर हर आरजू पूरी हो जाये
तो जीने मे क्या मजा है,
तेरे हर अंजाम मे मालिक
की भी रजा है,
रास्तें खुद-बा-खुद आसान हो जायेंगे,
बस एक सच्चे हमसफ़र की तालाश कर............

मुसाफिर बहुत उड़ लिया चाहतो के आसमान मै,
अब जीने के लिए ज़मी की तालाश कर...........

पूजा तोमर

3 comments:

  1. कविता के भाव बहुत अच्छे है.यथार्थवादी कविता है.सन्देश है, उपदेश है और जीने का ज़ज़्बा भी.मगर कुछ तकनीकी खमियां भी रह गई है. मुसाफ़िर चलता है, परिन्दे उडते हैं.कुछ लय की भी कमी अखरती है. अगर बहर में कहो तो ज़्यादा अच्छा होगा. लय और संगीत दोनों खुद ब खुद आ जायेंगे.

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  2. loved every line of this poem.....truthful बिना मेहनत के यहाँ बुराई भी
    हासिल नहीं होती,
    wow....so rhythmic ...

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  3. Puru ji TALASH KAR poem ye us insaan ke baare me hai jo chahto ke aasman me udta hai but kuch karne se darta hai sochta hai sab sochne se hi mil jaye, aur chahat ka to aasmaan hi hota hai jamin to mehnat ki hoti hai, jis pare karam karne se phal milta hai, Khawish karne se kuch nahi hota jab tak use safal karne ke liye mehnat na ki jaye

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